
संतोष पुरी को गीता भारतीय की उपाधि
प्रयागराज [ अपर्णा मिश्रा ]। “होनहार बिरवान के होत चिकने पात” यह कहावत ब्रह्मनिष्ठ संतोष पुरी जी के जीवन पर सटीक बैठती है। बचपन से ही उनकी विलक्षण प्रतिभा और गहन समझ ने उन्हें साधारण से असाधारण बना दिया। संतोष पुरी की विलक्षणता का पहला बड़ा प्रमाण मात्र नौ वर्ष की उम्र में सामने आया। इस छोटी-सी उम्र में उन्हें गीता का बोध हो गया था। उन्होंने न केवल गीता को समझा, बल्कि उसकी गहरी व्याख्या भी की। एक महत्वपूर्ण अवसर पर देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद से उनकी गीता पर चर्चा हुई। यह संवाद इतना प्रभावशाली था कि डॉ.राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें “गीता भारती” की उपाधि से सम्मानित किया।
संतोष पुरी के लिए यह नाम मात्र उपाधि नहीं था, बल्कि उनके जीवन का सार बन गया। नौ वर्ष की आयु में “गीता भारती” के रूप में पहचानी जाने लगीं संतोष पुरी ने अपनी आध्यात्मिक यात्रा को और गहन किया। उनका जीवन गीता के सिद्धांतों पर आधारित था। उनके विचार, व्यवहार और साधना ने यह सिद्ध कर दिया कि उम्र की सीमाएं प्रतिभा और ज्ञान के मार्ग में बाधा नहीं बन सकतीं।
संतोष पुरी: गुरु-शिष्य परंपरा की जीवंत मिसाल
मात्र तीन वर्ष की आयु में उनके माता-पिता ने उन्हें ब्रह्मलीन स्वामी हरिहरा नंद जी के संरक्षण में सौंप दिया। गुरु के सान्निध्य में रहकर संतोष पुरी ने अपनी आध्यात्मिक यात्रा शुरू की, जो आगे चलकर भारतीय संस्कृति और ज्ञान की एक मिसाल बन गई। यह कदम उनके जीवन का ऐसा महत्वपूर्ण मोड़ बना, जिसने उनकी पूरी जीवन यात्रा को नई दिशा दी।

संतोष पुरी के अनुसार, उन्हें अपने माता-पिता की कोई स्मृति नहीं है। उनके लिए गुरु ही माता-पिता और मार्गदर्शक थे। गुरु के प्रति उनका अगाध प्रेम और श्रद्धा उनके जीवन का आधार बना। उन्होंने बचपन में ही गुरु के चरणों में जीवन का अर्थ और उद्देश्य खोज लिया। गुरु द्वारा दी गई शिक्षा और संस्कार उनके जीवन की सबसे बड़ी पूंजी थी।
संतोष पुरी का पालन-पोषण पूरी तरह से गुरु के संरक्षण में हुआ। आश्रम की व्यवस्था में पलकर उन्होंने वैदिक संस्कारों, धार्मिक ग्रंथों और वेदों का गहन अध्ययन किया। गुरु के आशीर्वाद से उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण शिक्षाएं प्राप्त कीं और साधना के उच्चतम स्तर तक पहुंचीं। मात्र छह से सात वर्ष की आयु में ही उन्होंने भगवद गीता के श्लोकों का गहरा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। नौ वर्ष की आयु तक वे गीता के श्लोकों को पूरी तरह कंठस्थ कर चुकी थीं। उनकी साधना, तप और ज्ञान ने उन्हें एक महान संत के रूप में स्थापित किया।
गीता के श्लोकों में पारंगत होने के बाद संतोष पुरी के उपदेश सुनने के लिए दूर-दूर से संत और महात्मा आने लगे। स्वामी शरद पुरी जी के अनुसार, कुंभ मेला के दौरान जब संतोष पुरी का प्रवचन होता था, तो पंडाल में इतनी भीड़ होती थी कि तिल रखने की जगह भी नहीं बचती थी। यह उनके ज्ञान की गहराई और उनकी वाणी के प्रभाव को दर्शाता है।
संतोष पुरी की आध्यात्मिक यात्रा केवल उनके ज्ञान तक सीमित नहीं थी। उन्होंने अपने गुरु के निर्देशों के अनुसार, अपनी पूरी शक्ति और क्षमता को समाज के कल्याण में लगाया। उनके विचार, व्यवहार और साधना ने यह सिद्ध कर दिया कि समर्पण और लगन से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है।
उनकी शिक्षाएं आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं। उनका जीवन यह सिखाता है कि यदि सही मार्गदर्शन मिले और समर्पण का भाव हो, तो कोई भी व्यक्ति साधारण से असाधारण बन सकता है। संतोष पुरी के जीवन में गुरु की महिमा और शिक्षा का जो प्रभाव था, वह हमें यह समझने में मदद करता है कि भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परंपरा क्यों इतनी महत्वपूर्ण है।
संतोष पुरी का नाम आज भी उनकी शिक्षाओं और साधना के कारण समाज में आदर और श्रद्धा के साथ लिया जाता है। उनका जीवन यह प्रमाणित करता है कि ज्ञान, साधना और गुरु के प्रति निष्ठा ही जीवन को सार्थक बनाती है।
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