
संतोष पुरी पहली महिला महामंडलेश्वर
प्रयागराज [अपर्णा मिश्रा ]। भारत के संत समाज में ब्रह्मनिष्ठ संतोष पुरी का नाम एक ऐतिहासिक उपलब्धि के रूप में दर्ज है। वह देश की पहली महिला हैं जिन्हें महामंडलेश्वर की उपाधि दी गई। यह निर्णय केवल आध्यात्मिकता और साधना का ही परिणाम नहीं था, बल्कि इसमें संत समाज की सहमति और कुछ विशेष शर्तों की भूमिका भी अहम रही। आइए, जानते हैं इस ऐतिहासिक क्षण के पीछे की कहानी।
1962 का वह साल भारतीय धार्मिक परंपरा के इतिहास में एक अनोखा मोड़ लेकर आया। यह वह समय था जब समाज में महिलाओं को धार्मिक पदवी देने की बात कल्पना से परे थी। लेकिन, ब्रह्मनिष्ठ स्वामी हरिहरा नंद ने इस परंपरा को चुनौती दी। उन्होंने अपने आश्रम की एक युवती संत संतोष पुरी को महामंडलेश्वर का दर्जा देकर नया इतिहास रच दिया। स्वामी हरिहरा नंद का यह कदम महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया। उन्होंने यह साबित कर दिया कि ज्ञान और साधना में लिंग का कोई भेदभाव नहीं हो सकता। संतोष पुरी का नाम इतिहास में दर्ज हो गया और वह धार्मिक जगत में महिलाओं के लिए नए द्वार खोलने वाली एक प्रतीक बन गईं।
उस वक्त के प्रतिष्ठित संत स्वामी हरिहरा नंद ने यह महसूस किया कि धर्म और आध्यात्म में महिलाओं की भूमिका को स्वीकार करना और उन्हें समान अधिकार देना समय की प्रबल आवश्यकता है। उनके इस साहसिक कदम ने महिलाओं को धर्म और समाज में एक नई पहचान दी। संतोष पुरी ने अपने ज्ञान, तप और साधना से यह साबित कर दिया कि धर्म और आध्यात्मिकता में योग्यता का आधार लिंग नहीं, बल्कि साधना और समर्पण है।

दरअसल, यह वह दौर था जब आजादी के बाद के भारत में धार्मिक समाज में पुरुषों का वर्चस्व था। धर्म गुरु और महामंडलेश्वर बनने की बात महिलाओं के लिए सोचना भी असंभव माना जाता था। समाज में यह मान्यता थी कि धर्म गुरु या महामंडलेश्वर का पद केवल पुरुष संतों के लिए आरक्षित है। धार्मिक अनुष्ठानों और आध्यात्मिक नेतृत्व के मामले में महिलाओं की भूमिका सीमित थी। वे सार्वजनिक धार्मिक आयोजनों में पति के साथ ही भाग ले सकती थीं और उनका आध्यात्मिक जीवन अक्सर उनके पतियों से जोड़ा जाता था। ऐसे में आजादी के 15 साल बाद यह कदम समाज और धार्मिक जगत के लिए एक बड़ी क्रांति जैसा था।
स्वामी हरिहरा नंद के इस ऐलान के बाद धार्मिक जगत में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। कई साधु-संतों के बीच इस फैसले को लेकर आक्रोश था। परंपरावादी विचारधारा के संतों ने इसका कड़ा विरोध किया। लेकिन स्वामी हरिहरा नंद ने अपने निर्णय पर अडिग रहते हुए सभी बाधाओं का सामना किया। ब्रह्मनिष्ठ संतोष पुरी ने इस घटना को याद करते हुए बताया कि उनके गुरु ने उन्हें महामंडलेश्वर बनाने का फैसला लिया तो साधु-संतों के बीच बहस और तनाव की स्थिति बन गई थी। विरोध करने वाले संतों का दबाव समर्थक संतों पर भारी पड़ रहा था, लेकिन उनके गुरु ने दृढ़ता से इस निर्णय को लागू किया।
उस समय तक संतोष पुरी का अध्यात्मिक ज्ञान संत समाज में एक मिसाल बन चुका था। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद भी उनके ज्ञान से प्रभावित थे। वह पूर्व में संतोष पुरी को “गीता भारती” की उपाधि से सम्मानित कर चुके थे। बावजूद इसके यह निर्णय उस समय के धार्मिक जगत के लिए चौंकाने वाला था। संत समाज में यह बात फैल गई कि एक महिला को महामंडलेश्वर की उपाधि दी गई है। आलोचना और समर्थन दोनों की लहरें उठीं। इसका सामना स्वामी हरिहरा नंद और संतोष पुरी दोनों को करना पड़ा।
स्वामी हरिहरा नंद का त्याग: संत समाज की अद्वितीय घटना
संत समाज के इतिहास में ऐसे कई प्रसंग हैं जो न केवल प्रेरणा देते हैं, बल्कि जीवन के गहरे अर्थों को समझने का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं। ऐसा ही एक प्रसंग स्वामी हरिहरा नंद जी से जुड़ा है, जिसे स्वामी शारदा पुरी जी ने बड़े रोचक और भावुक अंदाज में प्रस्तुत किया।
स्वामी शारदा पुरी जी ने बताया कि एक महत्वपूर्ण सभा में संत समाज के समक्ष एक यक्ष प्रश्न उभरा। यह वह समय था जब संतोष पुरी जी को महामंडलेश्वर की उपाधि प्रदान करने का निर्णय लिया जा रहा था। परंतु इस निर्णय के साथ एक शर्त जुड़ी हुई थी। संत समाज का मत था कि यदि संतोष पुरी जी महामंडलेश्वर बनती हैं, तो स्वामी हरिहरा नंद जी को इस पद का त्याग करना होगा।
यह शर्त उस समय के संत समाज में बड़ी अटपटी और असामान्य थी। किसी भी पद या प्रतिष्ठा को छोड़ने का निर्णय सामान्यतः आसान नहीं होता। लेकिन स्वामी हरिहरा नंद जी ने बिना किसी असमंजस के मुस्कुराते हुए कहा,“हम अभी से इस उपाधि का त्याग करते हैं।” उनके इस उत्तर ने सभा में उपस्थित संतों और अनुयायियों को स्तब्ध कर दिया था।
स्वामी शारदा पुरी जी ने कहा कि यह घटना साधारण नहीं थी। यह उस मूल भावना को दर्शाती है,जिसे सच्चे संत अपने जीवन में अपनाते हैं। संतों के लिए पद, प्रतिष्ठा या उपाधि का कोई विशेष महत्व नहीं होता, उनके लिए केवल धर्म, सत्य और समर्पण ही सर्वोपरि होता है।

स्वामी हरिहरा नंद का यह त्याग महज एक महिला महामंडलेश्वर बनाने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उस परिवर्तन की शुरुआत है जिसने महिलाओं के लिए धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में नई राहें खोलीं। इस घटना के बाद धार्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण में धीरे-धीरे बदलाव आने लगा। महिलाओं को धार्मिक अनुष्ठानों और आध्यात्मिक कार्यों में अधिक स्वतंत्रता और सम्मान मिलने लगा। यह कदम उस समय महिलाओं के अधिकारों के प्रति एक सकारात्मक संदेश था और उसने समाज को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि महिलाएं भी धर्म और आध्यात्म के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दे सकती हैं।