
यूपी उपचुनाव तिथि फाइल फोटो।
लखनऊ [ TV 47 न्यूज नेटवर्क ]। उत्तर प्रदेश में इस बार उपचुनाव की तारीख़ें आगे बढ़ने के फैसले ने राजनीतिक दलों के बीच चर्चाओं को जन्म दिया है। जहां भाजपा इसे अपने पक्ष में मानती है, वहीं समाजवादी पार्टी (सपा) ने इसे चुनाव में हार के डर के रूप में प्रस्तुत किया है। इस निर्णय से भाजपा को फायदेमंद स्थिति में देखा जा रहा है, जबकि सपा इसे मतदाताओं को प्रभावित करने के प्रयास के रूप में देख रही है। चुनाव का परिणाम ही यह तय करेगा कि तिथि बदलने से किस पार्टी को वास्तविक लाभ हुआ। आइए जानें कैसे तारीख़ बदलने से विभिन्न पार्टियों को लाभ और हानि हो सकती है।
तिथि बदलने के कारण
चुनाव आयोग ने आधिकारिक बयान में कहा है कि नवंबर में मनाए जाने वाले ‘कल्पथी रथोत्सव’, ‘कार्तिक पूर्णिमा’ और ‘प्रकाश पर्व’ के मद्देनज़र उपचुनाव की तारीख़ों को आगे बढ़ाया गया है। इससे स्थानीय मतदाता आसानी से त्योहारों में हिस्सा ले सकें और मतदान के लिए समय निकाल सकें।
भाजपा के दृष्टिकोण से लाभ
भाजपा का मानना है कि उपचुनाव के दिन त्योहार होने से उसका मतदाता वोट नहीं दे पाएगा। दिवाली के बाद यूपी में कार्तिक पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है और बहुत से लोग तीर्थस्थलों की यात्रा करते हैं। इस वजह से भाजपा को चिंता थी कि उसके मतदाता अनुपस्थित रह सकते हैं। चुनाव की तिथि आगे बढ़ने से अब पार्टी को उम्मीद है कि उसके मतदाता उपलब्ध रहेंगे और पार्टी को इसका सीधा फायदा मिल सकता है।
समाजवादी पार्टी की प्रतिक्रिया
सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने चुनाव की तारीख़ बदलने के फैसले पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा चुनाव हारने के डर से इस फैसले पर जोर दे रही है। अखिलेश यादव का कहना है कि त्योहारों के चलते उत्तर प्रदेश लौटे प्रवासी मजदूर उपचुनाव में भाजपा के ख़िलाफ़ वोट डालने वाले थे। चुनाव तिथि आगे खिसकने से ये मतदाता वापस जा सकते हैं, जिससे भाजपा को लाभ हो सकता है।
अतीत में उपचुनाव टालने के उदाहरण
यह पहली बार नहीं है कि उपचुनाव की तारीख़ों में बदलाव किया गया हो। इससे पहले 2019 में कर्नाटक में और 2020 में कोविड महामारी के चलते चुनाव तिथि टल चुकी है। चुनाव आयोग ने इससे पहले भी चुनाव तिथियों में बदलाव किए हैं, ताकि मतदाता निर्बाध रूप से मतदान कर सकें।
तिथि बदलने के निर्णय का प्रभाव
चुनाव की तिथि आगे बढ़ाने से भाजपा को लाभ होने की संभावना जताई जा रही है, जबकि सपा इसे चुनावी रणनीति के रूप में देख रही है। तिथि आगे बढ़ने से जहां भाजपा अपने समर्थकों की भागीदारी को सुनिश्चित कर सकेगी, वहीं सपा इसे भाजपा के ‘डर’ के रूप में प्रचारित कर रही है।
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