
आचार्य महामंडलेश्वर कैलाशानंद
महाकुंभ 2025 के अवसर पर प्रयागराज में श्री निरंजनी अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर कैलाशानंद महाराज का सनातन धर्म, परंपरा और समाज में अखाड़ों की भूमिका, राज सत्ता और धर्म सत्ता के संबंध, शैव और वैष्णव अखाड़ों पर मतभेद को लेकर क्या विचार है ? बतौर आचार्य उनकी जिम्मेदारियां, राम राज्य की स्थापना की संभावना और धर्म के प्रति सरकार की सक्रियता जैसे तमाम ज्वलंत मुद्दों पर उन्होंने बेबाकी से अपनी राय व्यक्त की। आचार्य महामंडलेश्वर ने महाकुंभ में अपने शिविर में एक करोड़ लोगों को अन्नदान की तैयारियों और उसका प्रयोजन, साधु-संतों की राष्ट्र निर्माण में भूमिका और सनातन धर्म के संरक्षण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को विस्तार से बताया। इस साक्षात्कार में महाराज ने हाल के वर्षों में सरकार द्वारा धर्म और संस्कृति के लिए किए गए प्रयासों की सराहना करते हुए अपनी गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान की। आइए, उनके विचारों और दृष्टिकोण के प्रमुख अंशों पर नजर डालते हैं।
प्रश्न: आचार्य की निरंजनी अखाड़े में क्या भूमिका है?
उत्तर: आचार्य निरंजनी अखाड़े का प्रतिनिधित्व करता है और उसकी परंपराओं और सिद्धांतों का संवर्धन एवं संरक्षण करता है। आचार्य का प्रमुख उद्देश्य है सनातन धर्म और अखाड़े की प्राचीन परंपराओं को देश-विदेश में प्रचारित करना और समाज में उनकी स्थापना सुनिश्चित करना। श्री निरंजनी अखाड़ा, जो कि अखाड़ों की प्राचीनतम परंपराओं में से एक है, अनादिकाल से धर्म और राष्ट्र का रक्षक रहा है। जब-जब देश पर संकट आया है, चाहे वह धार्मिक हो या राष्ट्रीय, अखाड़े के नागा साधु-संतों ने आगे आकर धर्म और राष्ट्र की रक्षा की है। इस नेतृत्व और मार्गदर्शन में आचार्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आचार्य का कार्य केवल धार्मिक मार्गदर्शन तक सीमित नहीं है, बल्कि वह अखाड़े की मूलभूत संरचना, संन्यास परंपरा और सनातन धर्म की रक्षा का भी उत्तरदायित्व निभाता है। वह समाज को यह बताने का प्रयास करता है कि अखाड़े न केवल धर्म के रक्षक हैं, बल्कि सनातन परंपराओं को जीवंत रखने का माध्यम भी हैं।
प्रश्न: क्या आज की पीढ़ी अखाड़ों की भूमिका को समझती है ?
उत्तर: आज भी आम जन और विशेषकर युवा पीढ़ी अखाड़ों की वास्तविक भूमिका और महत्व से अनभिज्ञ हैं। समाज में यह धारणा प्रचलित है कि धर्म के प्रमुख स्तंभ केवल शंकराचार्य ही हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि अखाड़े धर्म, सनातन परंपरा और मूलभूत सिद्धांतों की रक्षा का सबसे बड़ा माध्यम हैं। अखाड़े से जुड़े लाखों साधु-संत, नागा और संन्यासी इन परंपराओं को जीवित रखने में जुटे रहते हैं। उनके मार्गदर्शन और तपस्या से धर्म और संस्कृति संरक्षित रहती है। इसलिए, आचार्य का कार्य है इन परंपराओं को समाज के हर वर्ग तक पहुंचाना और उन्हें यह समझाना कि अखाड़े सनातन धर्म के रक्षक और सन्न्यास परंपरा के स्तंभ हैं।
प्रश्न: आचार्य बनने के लिए क्या योग्यताएं होती हैं ?
उत्तर: आचार्य बनने के लिए व्यक्ति का सरल, सहज, तपस्वी और विद्वान होना आवश्यक है। अखाड़े में आचार्य का चयन उनकी तपस्या, साधना और ज्ञान के आधार पर किया जाता है। एक आचार्य को न केवल धर्मशास्त्रों का गहन ज्ञान होना चाहिए, बल्कि उसमें अपने अनुयायियों को मार्गदर्शन देने की क्षमता भी होनी चाहिए। आचार्य गुरु के समान होता है और अखाड़ा उसे आदरपूर्वक स्वीकार करता है।
प्रश्न: निरंजनी अखाड़ा अन्य अखाड़ों से कैसे अलग है ?
उत्तर: निरंजनी अखाड़ा भारत का सबसे समृद्ध, संपन्न और प्राचीन अखाड़ा है। इसकी परंपरा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। यह अखाड़ा अपनी विशिष्ट शिक्षाओं, साधना के तरीकों और नागा साधुओं की उपस्थिति के लिए प्रसिद्ध है। मेरा उद्देश्य है कि इस अखाड़े की परंपराएं पूरे देश में और घर-घर में स्थापित हों। सनातन धर्म और अखाड़े एक-दूसरे के पूरक हैं और इनका समन्वय समाज की आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक है।
प्रश्न: आपके उद्देश्यों में कौन-सी प्राथमिकताएं शामिल हैं ?
उत्तर: मेरा मुख्य उद्देश्य है कि निरंजनी अखाड़े की परंपराएं देश-विदेश में हर व्यक्ति तक पहुंचें। आज के समय में धर्म और संस्कृति को संरक्षण देने के लिए अखाड़ों का महत्व और बढ़ गया है। मैं यह चाहता हूँ कि हर घर में अखाड़े की शिक्षाएं और सिद्धांत स्थापित हों। अखाड़े केवल धार्मिक संस्थाएं नहीं हैं, बल्कि समाज और राष्ट्र की आत्मा को जीवंत रखने वाले संस्थान हैं। मेरी यह जिम्मेदारी है कि अखाड़े की परंपराओं को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाऊं और यह सुनिश्चित करूं कि सनातन धर्म की परंपराएं जीवित रहें।
प्रश्न: सनातन धर्म है या परंपरा ?
उत्तर: सनातन धर्म केवल परंपरा नहीं है। यह अनादि काल से चला आ रहा एक धर्म है, जो स्थिर, गहन और सार्वभौमिक सिद्धांतों पर आधारित है। पंथ और परंपरा सीमित और समय के अनुसार बदलने वाले हो सकते हैं, लेकिन सनातन धर्म कालातीत और शाश्वत है। अखाड़े इसकी संरचना का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और धर्म के प्रचार और संरक्षण के लिए कार्य करते हैं।
धर्म की जड़ें गहरी और स्थायी होती हैं। इसका इतिहास अत्यंत प्राचीन और अनादि काल से चला आ रहा है। धर्म, जीवन को जीने के नियम, आध्यात्मिकता और मूल्यों का एक व्यापक दृष्टिकोण है, जबकि परंपरा सामाजिक और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों का प्रतीक होती है, जो समय के साथ बदल सकती है। सनातन धर्म के साथ पंथ और परंपराओं की तुलना करना उचित नहीं है। पंथ आमतौर पर एक व्यक्ति या विचारधारा पर आधारित होता है, जिसका इतिहास छोटा और सीमित होता है। उदाहरण के लिए, विभिन्न धार्मिक पंथों का इतिहास हजारों साल पुराना हो सकता है, लेकिन वे सनातन धर्म के जैसे अनादि काल से नहीं चले आ रहे हैं।
सनातन धर्म अनंत और अटूट है। यह ब्रह्मांड के सार्वभौमिक नियमों, वेदों, उपनिषदों और शास्त्रों पर आधारित है। यह केवल पूजा-पद्धति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मानव जीवन के हर पहलू, जैसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को संतुलित करने का मार्गदर्शन देता है। परंपरा और धर्म में एक अन्य बड़ा अंतर यह है कि परंपराएं समाज की बदलती आवश्यकताओं और समय के अनुसार विकसित होती हैं। उदाहरण स्वरूप, विवाह की रस्में, त्यौहार मनाने के तरीके या सांस्कृतिक रीति-रिवाज समय के साथ बदल सकते हैं। लेकिन सनातन धर्म के सिद्धांत, जैसे सत्य, अहिंसा, करुणा और धर्मपालन, अपरिवर्तनीय और सार्वभौमिक हैं।
प्रश्न: क्या सनातन धर्म और अखाड़ा एक ही हैं ?
उत्तर: जी हां, सनातन धर्म और अखाड़ा एक ही हैं। अखाड़ा, सनातन धर्म की जीवंत परंपराओं और व्यवस्थाओं का अभिन्न अंग है। अखाड़े साधु-संतों के संगठन हैं, जो धर्म की रक्षा और प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित होते हैं। अखाड़े केवल धर्म और योग के प्रचार तक सीमित नहीं हैं। वे धर्म की रक्षा के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से योगदान देते हैं। यह संगठन धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन, अध्यात्मिक साधना और समाज सेवा को बढ़ावा देते हैं।
सनातन धर्म और अखाड़े का अलगाव संभव नहीं है। अखाड़े सनातन धर्म की स्थिरता और उसके मूल सिद्धांतों की रक्षा करने वाले संगठन हैं। वे धर्म को जीवंत बनाए रखते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि सनातन धर्म के सिद्धांत पीढ़ी-दर-पीढ़ी संरक्षित रहें।
प्रश्न : अखाड़ा क्या है और इसका महत्व क्या है ?
उत्तर: अखाड़ा एक धार्मिक संगठन है, जो हिंदू धर्म के सनातन परंपरा के साधु-संन्यासियों का समूह है। अखाड़े प्राचीन काल से ही धर्म के प्रचार-प्रसार और सामाजिक सद्भाव को बनाए रखने का कार्य करते आ रहे हैं। कुल 13 प्रमुख अखाड़े हैं। इनमें सात संन्यासियों के अखाड़े, तीन वैष्णव अखाड़े, दो उदासी अखाड़े और एक निर्मल का अखाड़ा है।इन सभी अखाड़ों का मुख्य उद्देश्य धर्म रक्षा, लोक कल्याण, मानव कल्याण और विश्व कल्याण है। वे अपने कर्मकांडों और यज्ञों के माध्यम से “सर्वे भवन्तु सुखिनः” का संदेश फैलाते हैं, जिसका अर्थ है कि सभी सुखी रहें, रोगमुक्त रहें और किसी को दुःख का अनुभव न हो।
प्रश्न : सनातन धर्म में अखाड़ों की भूमिका क्या है?
उत्तर: अखाड़े सनातन धर्म की परंपराओं और मूल्यों को संरक्षित और प्रचारित करते हैं। वे धर्म, अध्यात्म और सामाजिक सेवा के माध्यम से समाज में सकारात्मक बदलाव लाने का प्रयास करते हैं। सनातनी साधु और भद्रजन अखाड़ों के माध्यम से धर्म और समाज को जोड़े रखते हैं। साधु-संन्यासी नियमित रूप से यज्ञ, पूजा, ध्यान और सामाजिक सेवा के कार्य करते हैं। उनके यज्ञ और अनुष्ठानों का उद्देश्य विश्व में शांति और सद्भाव लाना होता है। वे “सर्वे भवन्तु सुखिनः” और “सर्वे सन्तु निरामया” जैसे सिद्धांतों को अपने जीवन में उतारते हैं।
प्रश्न : जो व्यक्ति सनातन धर्म को समझना चाहते हैं, उन्हें क्या करना चाहिए?
उत्तर: जो व्यक्ति सनातन धर्म को समझना और मानना चाहते हैं, उन्हें अखाड़ों के सिद्धांतों और शिक्षाओं का अध्ययन करना चाहिए। साधु-संन्यासियों के प्रवचनों और यज्ञों में भाग लेकर वे धर्म के गहरे अर्थ को जान सकते हैं।
प्रश्न : अखाड़ों की शिक्षा से समाज को क्या लाभ होता है?
उत्तर: अखाड़े समाज में शांति, सद्भाव और धर्म के प्रति जागरूकता बढ़ाने का कार्य करते हैं। उनकी शिक्षा से लोग आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक रूप से सशक्त होते हैं।
प्रश्न: अभी भी जनजातीय या कबायली वर्ग सनातन से दूर है। इसे आप कैसे ठीक करेंगे?
उत्तर: आप सही कह रहे हैं। समाज का एक बड़ा हिस्सा अभी भी हमसे दूर है। इसे लेकर हमने कई स्तरों पर कार्य किया है, लेकिन अब भी बहुत काम करने की आवश्यकता है। हमारे देश में जनजातीय समुदाय बड़ी संख्या में है और उनकी मूलभूत जरूरतें जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और भोजन पूरी नहीं हो पा रही हैं। हमने कई राज्यों का दौरा किया है और वहां की स्थितियों को समझा है। जैसे उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और दक्षिण के राज्यों में जनजातीय क्षेत्रों में परिस्थितियां बेहद विषम हैं। शिक्षा की कमी, रोज़गार का संकट और मूलभूत सुविधाओं का अभाव यहां की मुख्य समस्याएं हैं। इन इलाकों में रहने-खाने की स्थिति भी खराब है।
इस दिशा में काम करने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों की बड़ी भूमिका है। लेकिन केवल सरकार के प्रयास काफी नहीं हैं। समाज को इस काम में खड़ा होना होगा। मेरा मानना है कि इस काम में अखाड़े और आचार्यों की बड़ी भूमिका हो सकती है क्योंकि समाज उनसे जुड़ा होता है।
प्रश्न: इस कार्य को सरल और प्रभावी कैसे बनाया जा सकता है?
उत्तर : यदि समाज इस कार्य में जुड़ जाए, तो इसे सरल और प्रभावी बनाया जा सकता है। जब आचार्य और समाज के नेतृत्वकर्ता पहल करते हैं, तो लोग उन्हें स्वाभाविक रूप से फॉलो करते हैं। हमारा दायित्व है कि हम जनजातीय समुदायों को शिक्षा और रोजगार की ओर प्रेरित करें और उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाएं। इस दिशा में, हमने एक अनूठा कदम उठाया है। इस महाकुंभ में हमने एक बड़ा संकल्प लिया है – एक करोड़ लोगों को भोजन कराने का। इनमें से 90 लाख से अधिक सामान्य या गरीब तबके के लोग होंगे, और शेष वरिष्ठ नागरिक एवं अन्य जरूरतमंद। लगभग 300 रसोईघर और राशन की व्यवस्था पहले ही की जा चुकी है।
प्रश्न: आपके अनुसार, अन्नदान का क्या महत्व है?
उत्तर: मेरा मानना है कि संसार में अन्नदान से बड़ा कोई दान नहीं है। अन्नदान से न केवल व्यक्ति की भूख मिटती है, बल्कि यह उसके आत्मसम्मान को भी बनाए रखता है। यह पुण्य कार्य है और समाज को जोड़ने का एक साधन भी। इस महाकुंभ में हमने देखा है कि लोग दिल खोलकर सहयोग कर रहे हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि यदि सही दिशा में प्रयास किए जाएं, तो समाज के सभी वर्ग, चाहे वह ऊंचा हो या नीचा, एकजुट होकर काम कर सकते हैं। हमारे प्रयासों का उद्देश्य यह है कि एक दिन हर जनजातीय व्यक्ति मुख्यधारा से जुड़े और समानता का अनुभव करे।
प्रश्न: क्या शैव और वैष्णव में कोई फर्क नहीं है ? आप राम या शिव में किसे मानते हैं ?
उत्तर: यह प्रश्न गहराई से धर्म और भक्ति के मर्म को छूता है। शैव और वैष्णव परंपराओं में मतभेद की बात करना धर्म के बाहरी स्वरूपों को देखने जैसा है, लेकिन इनके मूल में कोई अंतर नहीं है। शैव परंपरा भगवान शिव को मुख्य आराध्य मानती है, जबकि वैष्णव परंपरा भगवान विष्णु और उनके अवतारों, विशेषकर भगवान राम और कृष्ण की पूजा करती है। परंतु गहराई से देखें तो दोनों ही परंपराएं एक ही सत्य की अभिव्यक्ति हैं।
मैं तो रामवादी हूं, लेकिन शिव की भक्ति में भी विश्वास रखता हूं। भगवान राम हमारे आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। उनकी जीवन गाथा हमें सत्य, धर्म और कर्तव्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है। लेकिन भगवान शिव भी हमारे आराध्य हैं। शिव के बिना राम और राम के बिना शिव की परिकल्पना अधूरी है। तुलसीदास जी की रामचरितमानस में स्पष्ट लिखा गया है -“शिव द्रोही मम दास कहावा, सो नर मोहि सपनेहु नहि पावा।” इस चौपाई का अर्थ यह है कि जो व्यक्ति शिव का अपमान करके राम की भक्ति करना चाहता है, वह भगवान राम की कृपा कभी नहीं पा सकता।
भगवान शिव ने भगवान राम की भक्ति की और राम ने शिव की। रामायण में भगवान राम ने रावण पर विजय प्राप्त करने से पहले भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त किया। उन्होंने शिवलिंग की स्थापना कर उनकी आराधना की। यह दिखाता है कि दोनों देवता एक-दूसरे के प्रति गहरी श्रद्धा रखते हैं। भगवान शिव और भगवान राम के बीच कोई विभाजन नहीं है। दोनों एक ही सर्वोच्च ब्रह्म के दो रूप हैं। शिव और राम के बीच भेद करना अनुचित है क्योंकि दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। शिवभक्तों को राम से और रामभक्तों को शिव से प्रेरणा लेनी चाहिए।
यह भेद मानव निर्मित है। धर्म का उद्देश्य जोड़ना है, न कि तोड़ना। राम और शिव को अलग-अलग मानने की सोच से हमें ऊपर उठना चाहिए। धर्म और भक्ति का मार्ग वह है जो प्रेम, समर्पण और एकता का संदेश देता है। मैं मानता हूं कि शैव और वैष्णव के बीच की खाई को पाटने की जरूरत है। व्यक्तिगत स्तर पर मैं इसे पूरी तरह समाप्त नहीं कर सकता, लेकिन यह प्रयास सामूहिक रूप से किया जाना चाहिए। राम और शिव दोनों हमारे आराध्य हैं और उनकी भक्ति हमें सच्चे धर्म और प्रेम की राह दिखाती है। इसे समाप्त करने के लिए हमें ज्ञान, सरलता, सहजता और समाजिकता की जरूरत है।
प्रश्न : क्या मौजूदा शासन व्यवस्था सनातन धर्म के प्रति सचेत है ?
उत्तर : सनातन संस्कृति और परंपराओं की रक्षा और विकास को लेकर इतिहास में कई महापुरुषों और शासकों का योगदान रहा है। अहिल्याबाई होलकर के बाद भारत को एक ऐसे राजा की प्रतीक्षा थी, जो धर्म, मठों, मंदिरों और परंपराओं को पुनर्जीवित करने के प्रति सचेत हो। 2014 के बाद का समय, कई मायनों में, एक नई शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है।
इस युग में शासन ने न केवल मंदिरों और धार्मिक स्थलों की ओर ध्यान दिया है, बल्कि सनातन परंपराओं के संरक्षण के लिए भी ठोस कदम उठाए हैं। यह न केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत आवश्यक है। मठों और मंदिरों के पुनरुद्धार से समाज में एक सकारात्मक ऊर्जा और सांस्कृतिक गौरव की भावना जागृत होती है।
मैं व्यक्तिगत रूप से किसी विशेष राजा या शासन का न पक्षधर हूं और न ही विरोधी। लेकिन एक सनातन धर्माचार के रूप में मेरा यह मानना है कि जो भी धर्म और संस्कृति की रक्षा करेगा, धर्म स्वयं उसकी रक्षा करेगा। यह केवल एक धार्मिक सिद्धांत नहीं, बल्कि एक सामाजिक सत्य भी है।
हमारी परंपराएं, धर्म और संस्कृति ही हमारी पहचान हैं। यदि हमारा धर्म और मठ सुरक्षित रहेंगे, तो हमारी भावी पीढ़ियां भी अपनी जड़ों से जुड़ी रहेंगी। इसलिए, ऐसे शासन और राजा का समर्थन करना आवश्यक है, जो धर्म और संस्कृति को प्राथमिकता देता हो। धर्म और परंपराओं की रक्षा ही हमारे अस्तित्व की आधारशिला है। धर्म की रक्षा करने वाले को धर्म हमेशा अमर बनाता है। यही सनातन का शाश्वत सत्य है।
प्रश्न : हाल के वर्षों में सनातन धर्म का विकास किस प्रकार हुआ है ?
उत्तर: हाल के वर्षों में, विशेषकर 2014 के बाद, सनातन धर्म ने एक नई ऊर्जा और जागरूकता का अनुभव किया है। इस समय में धार्मिक परंपराओं और मंदिरों पर अधिक ध्यान केंद्रित हुआ है। उदाहरण के तौर पर, ऐतिहासिक मंदिरों का पुनर्निर्माण, तीर्थ स्थलों का संरक्षण और धार्मिक आयोजनों को बढ़ावा दिया गया है। इससे समाज में धर्म के प्रति जागरूकता बढ़ी है और सनातन धर्म से जुड़ाव को नई दिशा मिली है।
प्रश्न : क्या आपको लगता है कि वर्तमान समय को रामराज की तरह देखा जा सकता है?
उत्तर : हां, यह कहना उचित होगा कि वर्तमान समय में रामराज जैसा अनुभव हो रहा है। खासकर, सत्ता और शासक का धार्मिक परंपराओं और मूल्यों के प्रति जो समर्पण दिखा है, वह उल्लेखनीय है। जिस प्रकार रामराज में धर्म और न्याय का पालन सर्वोच्च था, उसी प्रकार आज भी धर्म की रक्षा और परंपराओं का पालन करने के प्रयास हो रहे हैं।
प्रश्न : सनातन धर्म की निंदा करने वाले भी अब इसे स्वीकार कर रहे हैं, इसका क्या कारण है ?
उत्तर : सनातन धर्म की गहराई और इसकी वैज्ञानिकता ने विरोधियों को भी इसे समझने और अपनाने के लिए प्रेरित किया है। सनातन धर्म केवल एक धर्म नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक संतुलित और वैज्ञानिक तरीका है। इस कारण, जो पहले इसकी आलोचना करते थे, अब इसके महत्व को पहचान रहे हैं और शोध के माध्यम से इसे समझने का प्रयास कर रहे हैं।
प्रश्न : धर्म और राष्ट्रहित के बीच क्या संबंध है ?
उत्तर : धर्म और राष्ट्रहित एक दूसरे के पूरक हैं। जो व्यक्ति या समाज धर्म की रक्षा करता है, वह अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र की संस्कृति और परंपराओं को भी संरक्षित करता है। धर्म की जड़ें ही राष्ट्र की आत्मा होती हैं। इसलिए धर्म की रक्षा करने वाला राष्ट्रहित को भी सर्वोपरि रखता है।
प्रश्न : सनातन धर्म की रक्षा के लिए आज साधु-संतों की भूमिका कैसी है?
उत्तर : साधु-संत आज सनातन धर्म की रक्षा के लिए समर्पित हैं। वे अपने जीवन का अधिकांश समय धर्म और समाज की सेवा में लगाते हैं। उनकी भूमिका समाज को धर्म के प्रति जागरूक करने, परंपराओं को संरक्षित रखने और आध्यात्मिक मार्गदर्शन देने में अहम है।
प्रश्न : धर्म रक्षा के संदर्भ में आपका व्यक्तिगत अनुभव क्या है ?
उत्तर : मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह बताता है कि धर्म रक्षा करने में सेवा, समर्पण और अनुशासन का बड़ा योगदान है। उदाहरण के तौर पर, जब हम गंगा तट पर अथवा धार्मिक आयोजनों में समय बिताते हैं, तो हमारा मुख्य उद्देश्य अतिथियों की सेवा और धर्म के प्रति उनका जुड़ाव बढ़ाना होता है।
प्रश्न : धर्म की रक्षा करने वाले के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे ?
उत्तर : ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ एक लोकप्रिय संस्कृत वाक्यांश है। जिसका अर्थ है, ‘धर्म उन लोगों की रक्षा करता है जो इसकी रक्षा करते हैं। जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है। यानी जो राजा धर्म और परंपरा की रक्षा करता है, उसकी रक्षा धर्म करता है। यह शाश्वत सत्य है। जो लोग धर्म के मार्ग पर चल रहे हैं, उन्हें निष्ठा और समर्पण के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। धर्म रक्षा केवल व्यक्तिगत प्रयास नहीं, बल्कि पूरे समाज की उन्नति का माध्यम है।
प्रश्न : सनातन धर्म के भविष्य को लेकर आपके विचार क्या हैं ?
उत्तर : सनातन धर्म का भविष्य उज्ज्वल है। यह धर्म सदा से ही सहिष्णुता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और परंपराओं का समन्वय है। आज यह न केवल भारत में, बल्कि विश्वभर में लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। यदि हम इसे सही दिशा में ले जाएं, तो यह धर्म न केवल भारत का, बल्कि पूरे विश्व का मार्गदर्शन करेगा।
प्रस्तुति : अपर्णा मिश्रा